कभी जंगल कभी सहरा कभी दरिया लिख्खा अब कहाँ याद कि हम ने तुझे क्या क्या लिख्खा शहर भी लिक्खा मकाँ लिक्खा मोहल्ला लिखा हम कहाँ के थे मगर उस ने कहाँ का लिख्खा दिन के माथे पे तो सूरज ही लिखा था तू ने रात की पलकों पे किस ने ये अँधेरा लिख्खा सुन लिया होगा हवाओं में बिखर जाता है इस लिए बच्चे ने काग़ज़ पे घरौंदा लिख्खा क्या ख़बर उस को लगे कैसा कि अब के हम ने अपने इक ख़त में उसे दोस्त पुराना लिख्खा अपने अफ़्साने की शोहरत उसे मंज़ूर न थी उस ने किरदार बदल कर मिरा क़िस्सा लिख्खा हम ने कब शेर कहे हम से कहाँ शेर हुए मर्सिया एक फ़क़त अपनी सदी का लिख्खा