ख़राब हो गया जब मेरे जिस्म का काग़ज़ तो मेरी रूह ने पहना है दूसरा काग़ज़ गुज़ार दी है यूँ ही जोड़ते घटाते हुए सवाल हल न हुए और भर गया काग़ज़ ग़रीब-ए-शहर हूँ घर है न कारोबार कोई कभी बिछाता कभी ओढ़ता रहा काग़ज़ हुरूफ़ रक़्स-कुनाँ हो गए अचानक ही लबों से अपने जो उस ने कभी छुआ काग़ज़ वो दिन भी याद हैं हम को तुम्हारे हिज्राँ में हमारे बीच में जब राब्ता बना काग़ज़ उसे जो नाव बनाया तो ग़र्क़-ए-आब हुआ कुछ और देर तो लहरों से खेलता काग़ज़ अदालतों में भी झूटी गवाहियों के लिए तमाम-उम्र ज़बाँ खोलता रहा काग़ज़ फ़ुतूर ज़ेहन में भर कर हवस के नेज़ों पर उछालता रहा हम को हराम का काग़ज़