कभी जो मैं ने मसर्रत का एहतिमाम किया बड़े तपाक से ग़म ने मुझे सलाम किया हज़ार तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का एहतिमाम किया मगर जहाँ वो मिले दिल ने अपना काम किया ज़माने वालों के डर से उठा न हाथ मगर नज़र से उस ने ब-सद मा'ज़रत सलाम किया कभी हँसे कभी आहें भरीं कभी रोए ब-क़द्र-ए-मर्तबा हर ग़म का एहतिराम किया हमारे हिस्से की मय काम आए प्यासों के ज़े-राह-ए-ख़ैर गुनाह-ए-शिकस्त-ए-जाम किया तुलू-ए-महर से भी घर की तीरगी न घटी इक और शब कटी या मैं ने दिन तमाम किया दुआ ये है न हों गुमराह हम-सफ़र मेरे 'ख़ुमार' मैं ने तो अपना सफ़र तमाम किया