कभी कभी कितना नुक़सान उठाना पड़ता है ऐरों ग़ैरों का एहसान उठाना पड़ता है टेढ़े-मेढ़े रस्तों पर भी ख़्वाबों का पश्तारा तेरी ख़ातिर मेरी जान उठाना पड़ता है कब सुनता है नाला कोई शोर-शराबे में मजबूरी में भी तूफ़ान उठाना पड़ता है कैसी हवाएँ चलने लगी हैं मेरे बाग़ों में फूलों को भी अब सामान उठाना पड़ता है गुल-दस्ते की ख़्वाहिश रखने वालों को अक्सर कोई ख़ार भरा गुल-दान उठाना पड़ता है याँ कोई तफ़रीक़ नहीं है शाह गदा सब को अपना बोझ दिल-ए-नादान उठाना पड़ता है यूँ मायूस नहीं होते हैं कोई न कोई ग़म अच्छे अच्छों को हर आन उठाना पड़ता है मक्कारों की इस दुनिया में कभी कभी 'आलम' अच्छे लोगों को बोहतान उठाना पड़ता है