कभी ख़ुदा कभी ख़ुद से सवाल करते हुए मैं जी रहा हूँ मुसलसल मलाल करते हुए मगन था कार-ए-मोहब्बत में इस तरह कि मुझे ख़बर न हो सकी अपना ये हाल करते हुए किसे बताऊँ गुज़ारा है मैं ने भी इक दौर मिसाल होते हुए और मिसाल करते हुए वो जज़्ब-ओ-शौक़ ही आख़िर अज़ाब-ए-जाँ ठहरा हराम हो गया जीना हलाल करते हुए न कोई रंज उन आँखों में था दम-ए-रुख़्सत न थी ज़बान में लुक्नत सवाल करते हुए ये काम उस के लिए जैसे मसअला ही न था वो पुर-सुकून था कार-ए-मुहाल करते हुए तमाम उम्र जो लौ दें मुझे रखें आबाद गया वो ऐसे ग़मों से निहाल करते हुए