ख़ुशी से ज़ीस्त का हर दुख उठाए जाते हैं हम अहल-ए-दिल की रिवायत निभाए जाते हैं जुनूँ की राह में बुझ बुझ के अब भी दीवाने चराग़ शोला-ए-जाँ से जलाए जाते हैं वो फ़र्द-ए-जुर्म ही ऐ मुंसिफ़ो नहीं मेरी मुझे ये फ़ैसले जिस पर सुनाए जाते हैं तअल्लुक़ात में दो तरफ़ा सर्द-मेहरी है बस एक वज़्अ को दोनों निभाए जाते हैं ख़ुशी तो ढूँडे भी इस दौर में नहीं मिलती ये कौन लोग हैं जो मुस्कुराए जाते हैं