कभी मैं ख़ुद से कभी दूसरों से उलझा हूँ तिरी तलब में हर इक मरहले से गुज़रा हूँ ख़याल तुझ से बिछड़ने का जब भी आया है मैं तेरी याद से पहरों लिपट के रोया हूँ तिरे अलावा नज़र में कोई जचा ही नहीं बिछड़ के तुझ से मैं हर अंजुमन में तन्हा हूँ पयम्बरी का है दावा न शायरी पे ग़ुरूर हदीस-ए-दर्द ग़ज़ल की ज़बाँ में कहता हूँ न तू है मिस्ल-ए-ज़ुलेख़ा न मिस्ल-ए-यूसुफ़ मैं निगाह भर के मुझे देख ले मैं तेरा हूँ ख़ुश-ए'तिक़ाद हूँ मैं भी उसे भी ख़ुश-फ़हमी न वो ख़ुदा की तरह है न मैं फ़रिश्ता हूँ