ख़ुद अक्स ही चेहरा का आईने में ढलता है आईना बदलने से कब चेहरा बदलता है गुफ़्तार से होता है किरदार का अंदाज़ा उनवाँ से फ़साने का मफ़्हूम निकलता है आज अपनी रविश पर वो ख़ुद सर-ब-गरेबाँ है इख़्लास की गर्मी से पत्थर भी पिघलता है निस्बत है जिसे उन से वो दर्द है पाइंदा हर दर्द कहाँ वर्ना नग़्मात में ढलता है मैं मो'तरिफ़-ए-जुर्म-ए-इज़हार-ए-सदाक़त हूँ ये तर्ज़-ए-हयात अब क्यों अहबाब को खलता है ये नर्म-रवी 'तालिब' फूलों में रवा रखिए पत्थर का कलेजा तो तेशे से दहलता है