कभी मकाँ की तरफ़ है कभी मकीं की तरफ़

कभी मकाँ की तरफ़ है कभी मकीं की तरफ़
किसी का रुख़ है अज़ल से मिरी ज़मीं की तरफ़

चराग़-ए-लाला है रौशन न सुर्ख़ रू-ए-हिना
फ़ज़ा-ए-सेहन-ए-गुलिस्ताँ है यासमीं की तरफ़

मिरे बदन ने भी इस फ़ैसले पे साद किया
कि दाग़-ए-सज्दा रहेगा फ़क़त जबीं की तरफ़

तुयूर-ए-ख़्वाब हों आईने हों सितारे हों
रवाँ-दवाँ हैं सभी अर्श-ए-नीलमीं की तरफ़

हुआ है कोई अगर फ़ैसला मिरे हक़ में
कभी मैं हाँ की तरफ़ था कभी नहीं की तरफ़

बदल न पाऊँगा मैं आसमाँ बदलने से
मिरा झुकाव रहेगा उसी हसीं की तरफ़

दयार-ए-दिल का अंधेरा अगर छटा 'साजिद'
तो ध्यान जाएगा उस शम-ए-अव्वलीं की तरफ़


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