कभी मरहलात-ए-हयात में कोई हम-नवा ही नहीं मिला अब इस इत्तिफ़ाक़ को क्या कहूँ मुझे आसरा नहीं मिला जो तिरे क़दम का जवाब हो जो तिरे जमाल का अक्स हो मुझे ऐसा मंज़िल-ए-शौक़ में कोई नक़्श-ए-पा ही नहीं मिला कई राज़-दार-ए-बुताँ भी थे कई राज़दार-ए-हरम भी थे मिरे इश्तियाक़-ए-निगाह को सनम-आश्ना ही नहीं मिला कोई मुत्तक़ी कोई पारसा कोई रिंद कोई जुनूँ-अदा ये सभी मिले हैं मुझे मगर कोई बे-ख़ता ही नहीं मिला रह-ए-मरहलात-ए-ख़ुलूस में मिरे दिल से तेरी निगाह तक मुझे जज़्ब-ए-शौक़ के मा-सिवा कोई रहनुमा ही नहीं मिला ये बड़ी अजीब सी बात है कि तअ'ल्लुक़ात-ए-हयात में मुझे ख़ुद-नुमा तो मिले मगर कोई रहनुमा ही नहीं मिला वो जुनूँ-मक़ाम-ओ-जुनूँ-अदा वो तुम्हारा 'बासित'-ए-बा-वफ़ा मगर उस का हम-सर-ओ-हम-नवा कोई दूसरा नहीं मिला