कभी मस्तूर रहती है कभी मालूम होती है तजल्ली इक फ़रेब-ए-आगही मालूम होती है करिश्मा-साज़ी-ए-वारफ़्तगी मालूम होती है निगाह-ए-शौक़ तेरी आरसी मालूम होती है नशेमन पर ये आफ़त भी नई मालूम होती है फ़ज़ा में इक तड़पती रौशनी मालूम होती है जो ईसार-ओ-मोहब्बत की कमी मालूम होती है ये दुनिया दौलत-ए-दिल से तही मालूम होती है तिरे क़ुर्बां पसीना पोंछ माथे से नदामत का कि ठंडी धूप फीकी चाँदनी मालूम होती है यक़ीनन आबला-पा कोई गुज़रा है बयाबाँ से ज़मीं जलती है काँटों में नमी मालूम होती है ख़ुदा जाने लिखा अहल-ए-वफ़ा ने कैसा अफ़्साना ज़माना हो गया बात आज की मालूम होती है यहाँ किस से मुदावा चाहूँ अपने दर्द का 'नातिक़' मुझे तो सारी दुनिया अजनबी मा'लूम होती है