कभी न मेरे क़लम की गिरफ़्त में आए ये भागते हुए लम्हे ये दौड़ते साए वो ज़ोर अब मिरे सूखे हुए बदन में कहाँ मुहाल है मिरी आवाज़ दूर तक जाए ज़मीन-ए-शेर में जब क़ुव्वत-ए-नुमू ही नहीं हज़ार सींचिए सब्ज़ा भी क्या नज़र आए यहाँ तो मस्लहतन झूट को भी सच कहिए हम ऐसी मस्लहत-ए-नारवा से बाज़ आए हम ऐसे अहल-ए-नज़र के लिए फ़रिश्ता है वो आदमी जो किसी आदमी के काम आए अब आने वाले नए साल पर नज़र रक्खो चमन में फूल खिलाए कि आग बरसाए 'असर' ग़यूर अगर है तो कैसे मुमकिन है किसी के सामने दस्त-ए-सवाल फैलाए