झेल कर दुख मुझे जीने का क़रीना आया न जबीं पर शिकन उभरी न पसीना आया कितने अल्फ़ाज़-ओ-तराकीब तराशे मैं ने गुफ़्तुगू का न सलीक़ा न क़रीना आया मुद्दतों मैं ने किया है दिल-ए-सद-चाक रफ़ू तब कहीं जा के मुझे ज़ख़्म का सीना आया मुझ को होना पड़ा मम्नून-ए-करम मौजों का कितनी मुश्किल से किनारे पे सफ़ीना आया मैं ने शिकवा न किया तेरी जफ़ाओं का कभी साफ़ दिल था कि मिरे दिल में न कीना आया फिर नए साल की आमद पे क़सीदा लिख्खूँ ख़त्म होने को दिसम्बर का महीना आया मैं ने वो राज़-ए-हक़ीक़त कभी इफ़्शा न किया जो मिरे पास 'असर' सीना-ब-सीना आया