कभी क़ातिल कभी मसीहा है कुछ न पूछो कि वो नज़र क्या है उस की ता'बीर कौन दे मुझ को उन के आने का ख़्वाब देखा है जिस नज़र से भी आप देखेंगे मेरे दुख का वही मुदावा है अश्क पलकों पे मुस्कुराने लगे आज किस ने मिज़ाज पूछा है उफ़ ये माहौल दौर-ए-हाज़िर का जिस को देखो वो सहमा सहमा है आदमी आदमी को पहचाने आदमिय्यत का ये तक़ाज़ा है जब से पाया है उन को महव-ए-करम दर्द-ए-दिल और बढ़ता जाता है जो समुंदर से भी न हो सैराब ज़िंदगी प्यास का वो सहरा है अब यही रस्म-ए-गुल्सिताँ है 'बहार' फूल माँगो तो ज़ख़्म मिलता है