जुस्तुजू में वो दौर भी आया हम ने मंज़िल को आप ठुकराया अपने साया को जब से अपनाया कोई सूरज न मेरे पास आया फूल उस की तरफ़ बढ़े अक्सर जिस ने काँटों से दिल को बहलाया रूह-ए-कौनैन झूम झूम गई हम ने उल्फ़त का गीत जब गाया दिल में क्या कुछ न था मिरे लेकिन उन से इक बात भी न कह पाया जगमगाने लगा जहान-ए-ख़याल कौन यादश-ब-ख़बर याद आया शौक़-ए-मंज़िल था ऐ 'बहार' मगर मंज़िल आई तो और घबराया