कभी सहर तो कभी शाम होना चाहता हूँ कभी पियाला कभी जाम होना चाहता हूँ नहीं मिले थे तो शोहरत की भूक जागी थी जो मिल गए हो तो गुमनाम होना चाहता हूँ उभर रहे हैं तिरी चाहतों के बाग़-ओ-बहार मैं चुपके चुपके दिल-आराम होना चाहता हूँ सुनहरी यादें ही पलती रहीं जिस आँगन में मैं उस महल के दर-ओ-बाम होना चाहता हूँ मैं अपने ख़ुद के बनाए हुए उसूलों में कभी मैं कृष्ण कभी राम होना चाहता हूँ तेरे फ़साने की हर ख़ुशनुमा इबारत में कहीं पे क़ाफ़ कहीं लाम होना चाहता हूँ मिरे ख़ुदा मुझे अब हुस्न की बशारत दे मैं उस के शहर पे इल्हाम होना चाहता हूँ उदासियों ने लिखा है जो चेहरे चेहरे पे फ़सुर्दगी का वो पैग़ाम होना चाहता हूँ क़दम क़दम पे यहाँ कर्बलाएँ फैली हैं मैं वक़्त-ए-अस्र का हंगाम होना चाहता हूँ