कभी सितारे कभी कहकशाँ बुलाता है

कभी सितारे कभी कहकशाँ बुलाता है
हमें वो बज़्म में अपनी कहाँ बुलाता है

न जाने कौन सी उफ़्ताद आ पड़ी है कि जो
हम अहल-ए-इश्क़ को कार-ए-जहाँ बुलाता है

ये कैसा दाम-ए-रिहाई बिछा दिया उस ने
ज़मीं पकडती है और आसमाँ बुलाता है

गली गली में अक़ीदों भरी दुकानें हैं
क़दम क़दम पे नया आस्ताँ बुलाता है

भटक गए हैं मगर गुम नहीं हुए हैं कहीं
अभी हमें जरस-ए-कारवाँ बुलाता है

ये आग लगने से पहले की बाज़-गश्त है जो
बुझाने वालों को अब तक धुआँ बुलाता है

उम्मीद टूटने लगती है जब भी कोई 'सलीम'
तो इक यक़ीं पस-ए-वहम-ओ-गुमाँ बुलाता है


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