निकल कर साया-ए-अब्र-ए-रवाँ से रहे हम मुद्दतों बे-साएबाँ से ज़मीं पर चाँद आना चाहता है उतर कर कश्ती-ए-आब-ए-रवाँ से निगाहें ढूँडती हैं रफ़्तगाँ को सितारे टूटते हैं आसमाँ से मनाते ख़ैर क्या हम जिस्म ओ जाँ की उसे चाहा था हम ने जिस्म ओ जाँ से 'रसा' किस अहद-ए-ना-पुरसाँ में हम ने लिया है काम हर्फ़-ए-राएगाँ से