कभी तिरी कभी अपनी हयात का ग़म है हर एक रंग में नाकामियों का मातम है ख़याल था तिरे पहलू में कुछ सुकूँ होगा मगर यहाँ भी वही इज़्तिराब पैहम है मिरे मज़ाक़-ए-अलम-आश्ना का क्या होगा तिरी निगाह में शो'ले हैं अब न शबनम है सहर से रिश्ता-ए-उम्मीद बाँधने वाले चराग़-ए-ज़ीस्त की लौ शाम ही से मद्धम है ये किस मक़ाम पे ले आई ज़िंदगी 'राही' कि हर क़दम पे अजब बेबसी का आलम है