फ़लक पे चाँद है और पास इक सितारा है ये तेरी मेरी मोहब्बत का इस्तिआ'रा है शब-ओ-सहर के तसलसुल में ये तुलू-ओ-ग़ुरूब समझने वालों को इक दुख-भरा इशारा है ये तेरे सोज़न-ए-मिज़्गाँ के बस की बात नहीं यहाँ तो पैरहन-ए-जाँ ही पारा-पारा है फ़क़त करिश्मा-ए-तर्ज़-ए-नज़र है सूद-ओ-ज़ियाँ किसी का नफ़अ' किसी के लिए ख़सारा है वो जिस ने मुझ को कहीं का नहीं रखा इक उम्र वही ख़याल वही आरज़ू दोबारा है नई जगह मुझे मानूस सी लगी तो खुला ये कोई ख़्वाब में देखा हुआ नज़ारा है यहाँ से जो भी गया लौट कर नहीं आया बताए कौन कहाँ दूसरा किनारा है