कभी तो इश्क़ में ऐसी घड़ी भी आती है सुकून मिलता है ग़म से ख़ुशी रुलाती है ये किस मक़ाम से आख़िर तुझे पुकारता हूँ मिरी सदा मिरी जानिब ही लौट आती है जुनूँ हो अक़्ल-ओ-ख़िरद से हज़ार बेगाना तिरी कशिश तो दिवाने को खींच लाती है मैं शहर छोड़ के सहरा में जा रहा हूँ सुनो कहाँ की मिट्टी है मुझ को कहाँ बुलाती है ऐ ज़िंदगी तुझे रहना है मेरे साथ तो फिर निगाहें चार कर आँखों को क्यों चुराती है तुम्हारे हुस्न की मा'सूमियत अरे तौबा ख़ुदा की शान है जो आक़िबत बचाती है शहीद-ए-नाज़ ने ख़ून-ए-जिगर से ग़ुस्ल किया मगर गुलाब की ख़ुशबू कफ़न से आती हे