ख़याल-ओ-ख़्वाब की दुनिया बदल गया कोई हिसार-ए-ज़ात से बाहर निकल गया कोई हदीस-ए-दिल का भी उनवाँ बदल गया कोई हमारे साग़र-ए-हस्ती में ढल गया कोई बुझा न पाई उसे आँसूओं की बारिश भी हसद की आग में कुछ इतना जल गया कोई ख़िज़ाँ-बदोश बहारें भी मुस्कुराने लगीं किसी की याद में ऐसे मचल गया कोई अदा-ए-ख़ास से कहने लगा वो जाम-ब-कफ़ कि गिरते गिरते यहाँ फिर सँभल गया कोई बता रही हैं ये 'क़ैसर' धुएँ की तहरीरें पराई आग में क्यों फिर से जल गया कोई