क़ाबिल-ए-दीद ये भी मंज़र है हर ख़ुशी ग़म का एक दफ़्तर है सोचता हूँ यही मिरा घर है किस के जल्वों से अब मुनव्वर है याद-ए-जानाँ अरे मआज़-अल्लाह जैसे पहलू में एक नश्तर है उन से हर चंद रस्म-ओ-राह नहीं सिलसिला ग़म का फिर बराबर है कैसे हो मुस्तफ़ीज़ पेशानी संग-दिल जब कि ख़ुद तिरा दर है यक-ब-यक हंस पड़ा है दीवाना हर-नफ़स देखता है शश्दर है इम्तिहाँ 'ख़िज़्र' है वफ़ाओं का उस के हाथों में आज ख़ंजर है