क़ब्र पर होवें दो न चार दरख़्त एक काफ़ी है साया-दार दरख़्त था मैं दीवाना गोर पर है ज़रूर बेद-ए-मजनूँ का साया-दार दरख़्त हों वो बद-बख़्त मेरे साए से ख़ुश्क होते हैं बार-दार दरख़्त तू जो ऐ सर्व बाग़ में जाए समर ओ गुल करें निसार दरख़्त पस्त हों तुझ से ग़ैरत-ए-तूबा एक क्या हों अगर हज़ार दरख़्त वाह-रे मेरे आह के झोंके उड़ते फिरते हैं काह-वार दरख़्त मैं जो तासीर-ए-आह दिखलाऊँ कोह हिल जाएँ दरकिनार दरख़्त बाग़-ए-हस्ती में ज़ोफ़-ए-पीरी से 'रिन्द' हूँ मिस्ल-ए-बीख़-ख़ार दरख़्त बाग़बाँ क्यूँ न जाने इस को फ़ुज़ूल कर चुके अपनी जब बहार दरख़्त