क़ाबू में दिल हो तो कहें शैदा न कीजिए अपने को अपने हाथ से रुस्वा न कीजिए दिल ले के बोसा देते नहीं और ये कहते हैं अपने पराए में कहीं चर्चा न कीजिए रिंदान बादा-ख़्वार में है ऐब-ए-सर-कशी ख़म किस तरह से गर्दन-ए-मीना न कीजिए ईसा से उन की चश्म-ए-सुख़न गो ये कहती है मेरे मरीज़-ए-इश्क़ को अच्छा न कीजिए मुँह फेरिए न लाल-ए-शकर खा के बोसे से दिल अपने तल्ख़-काम का खट्टा न कीजिए ख़ूँ-रेज़ियाँ टपकती हैं पा-ए-हिनाई से फ़ित्ना ख़िराम-ए-नाज़ का बरपा न कीजिए आग़ाज़ इश्क़ को दिया अंजाम-ए-गिर्या ने अब क्या 'वक़ार' कीजिए और क्या न कीजिए