क़दम क़दम का इलाक़ा है ना-रवा तक है फ़ुसून-ए-जौर-ओ-जफ़ा पेशा जा-ब-जा तक है गर एक बार का होना अलम ग़नीमत था सितम तो ये है कि दर-पेश बार-हा तक है दिए की लौ से नहीं वास्ता किसी का कोई अगर किसी का कोई है तो फिर हवा तक है अमल है ख़ुद पे अमल-दार ता दम-ए-मौक़ूफ़ और इस का रद्द-ए-अमल अपने इल्तवा तक है सदा-ए-शोर-ओ-शग़ब है इधर समाअत तक शुनीद गिर्द ओ जवानिब इधर सदा तक है मगर ये कौन बताए सफ़र-नवर्दों को कि हद दश्त-ए-जुनूँ उन के इक्तिफ़ा तक है ऐ बे-क़रारी-ए-दिल मुझ को ये ख़बर ही न थी कि जो क़रार की सरहद है इत्तिक़ा तक है ख़ुदा से बाद में रक्खे हुए है दुनिया को वो फ़ासला जो हथेली से इक दुआ तक है कहीं परे की है हाजत-रवाई से मेरी मिरा सवाल ज़रूरत से मावरा तक है है तू ही आँख मिरी ऐ जमाल-ए-पेश-ए-नज़र सो ये तमाशा मिरा इक तिरी रज़ा तक है नहीं है कोई भी हतमी यहाँ हद-ए-मालूम हर एक इंतिहा इक और इंतिहा तक है