क़दम सौ मन के लगते हैं कमर ही टूट जाती है कोई उम्मीद जब बर आती आती टूट जाती है दरीचे बंद ज़ेहनों के नहीं खुलते हैं ताक़त से लगा हो ज़ंग ताले में तो चाबी टूट जाती है तिरी उल्फ़त में ऐसा हाल है जैसे कोई मछली निगल लेती है काँटा और लग्गी टूट जाती है जिधर के हो उधर के हो रहो दिल से तो बेहतर है कि लोटा बे-तली का हो तो टोंटी टूट जाती है अकड़ कर बोलने वाले न हो गर तान आटे में तवे से क़ब्ल ही हाथों में रोटी टूट जाती है चवन्नी के न तुड़वाने पे हम से रूठने वाले कहाँ है तू कि आ अब सौ की गड्डी टूट जाती है