क़दमों को ठहरने का हुनर ही नहीं आया सब मंज़िलें सर हो गईं घर ही नहीं आया थी तेग़ उसी हाथ में क़ातिल भी वही था जो हाथ कि मक़्तल में नज़र ही नहीं आया घर खोद दिया सारा ख़ज़ाने की हवस में नीव आ गई तह-ख़ाने का दर ही नहीं आया क्या शाख़ों पे इतराइए क्या कीजे गुलों का पेड़ों पे अगर कोई समर ही नहीं आया सौ ख़ौफ़ ज़माने के सिमट आए हैं दिल में बस एक ख़ुदा-पाक का डर ही नहीं आया