क़दमों से इतना दूर किनारा कभी न था ना-क़ाबिल-ए-उबूर ये दरिया कभी न था तुम सा हसीं इन आँखों ने देखा कभी न था लेकिन ये सच नहीं कोई तुम सा कभी न था है ज़िक्र-ए-यार क्यूँ शब-ए-ज़िंदाँ से दूर दूर ऐ हम-नशीं ये तर्ज़ ग़ज़ल का कभी न था कमरे में दिल के उस के अलावा कोई नहीं हैरान हूँ कि ऐसा अँधेरा कभी न था किस ने बिसात-ए-बहस के मोहरे बदल दिए तन्हा तो था वो पहले भी गूँगा कभी न था इमरोज़-ए-इंतिज़ार का फ़र्दा तो कल भी है अंदोह-ए-इमशबी का सवेरा कभी न था हर ज़ेहन में हमेशा सुलगता है ये सवाल आख़िर हुआ वो क्यूँ जिसे होना कभी न था दीवाना था भटक गया गुम हो गया है क़ैस ख़ाली मगर कजावा-ए-लैला कभी न था कल भी इसी दयार में था रौशनी का क़हत ऐसा मगर चराग़ का धंदा कभी न था पिघली कुछ और बर्फ़ तो इक और शहर-ए-ख़्वाब यूँ बह गया नशेब में गोया कभी न था बरसा है किस बबूल पे अब्र-ए-बहार-ख़ेज़ इतना हरा तो ज़ख़्म-ए-तमन्ना कभी न था उस ने भी इल्तिफ़ात से देखा था कब 'ख़लिश' मैं ने भी उस के बारे में सोचा कभी न था