कफ़-ए-ग़ुबार में मल्बूस मेरा पैकर था ये सानेहा तो अज़ल से मिरा मुक़द्दर था हर एक सम्त से मुझ पर हुई थी बारिश-ए-संग ज़हे-नसीब मैं अपने मकाँ के अंदर था सुकूत-ए-शब में ये आवाज़ मुझ को दी किस ने वो रास्ते का मुसाफ़िर था या कि रहबर था उसी का अक्स रहा आइने में जल्वा-फ़गन वो अपनी ज़ात का शायद ख़ुद आइना-गर था तिरे जमाल से थी ज़िंदगी में रानाई मिरे वजूद का तू ही अज़ल से महवर था अँधेरी रात में साया भी साथ दे न सका नशेब-ए-राह में ख़ुद ही मैं अपना रहबर था मिरी नज़र में बरेशम था सिल्क पैराहन गुहर भी मेरे लिए रास्ते का पत्थर था मिरे सफ़र की 'सबा' इंतिहा यही तो नहीं क़दम था रेत पे और सामने समुंदर था