कभी मस्जिद कभी मंदिर से उठा इक सवाली था तिरे दर से उठा जब बुझा दिल में चराग़-ए-उम्मीद इक धुआँ सा मिरे अंदर से उठा चाँदनी रू-ए-ज़मीं पर फैली शोर तूफ़ाँ का समुंदर से उठा जब लुटी अपनी मता-ए-हस्ती एक शो'ला सा मिरे घर से उठा वो भी इक ना'रा-ए-मस्ताना था जो मिरे साया-ए-पैकर से उठा किस क़यामत की ये अंगड़ाई है नश्शा सा बादा-ओ-साग़र से उठा उस का पैकर कभी मानिंद-ए-सलीब मेरे हर ख़्वाब के महवर से उठा दैर में जब भी उठा है फ़ित्ना सनद-ए-ख़ैर से या शर से उठा मेरी पहचान है मुझ से क़ाएम हर-नफ़स अपने ही महवर से उठा मैं जो इक शो'ला-नवा शाइ'र हूँ बे-सदा बज़्म-ए-सुख़नवर से उठा