कहाँ हो कौन हो क्या हो हमें बताओ तो निकल के पर्दा-ए-दैर-ओ-हरम से आओ तो अंधेरा फिर न रहेगा दिये जलाओ तो रुख़-ए-हयात से इक इक नक़ाब उठाओ तो मैं अपने जज़्ब-ए-मोहब्बत का इम्तिहाँ ले लूँ कुछ और मेरी निगाहों से दूर जाओ तो ज़माना हो गया छाया है गुलिस्ताँ पे जुमूद चमन-परस्तो नया गुल कोई खिलाओ तो उजाले सीना-ए-ज़ुलमात ही से निकलेंगे चराग़-ए-अम्न-ओ-मोहब्बत ज़रा जलाओ तो क़दम क़दम पे बनाऊँगा एक शीश-महल तुम अपने शहर में मुझ को कभी बुलाओ तो ज़बाँ पे होगा तुम्हारी भी शिकवा-ए-दुनिया हमारी तरह ज़रा तुम भी चोट खाओ तो झुकेगा एक ज़माना तुम्हारे क़दमों पर ख़ुदा के सामने ऐ 'नूर' सर झुकाओ तो