कहाँ न-जाने चला गया इंतिज़ार कर के यहाँ भी होता था एक मौसम-ए-बहार कर के जो हम पे ऐसा न कार-ए-दुनिया का जब्र होता तो हम भी रहते यहाँ जुनूँ इख़्तियार कर के न-जाने किस सम्त जा बसी बाद-ए-याद-परवर हमारे अतराफ़ ख़ुशबुओं का हिसार कर के कटेंगी किस दिन मदार-ओ-मेहवर की ये तनाबें कि थक गए हम हिसाब-ए-लैल-ओ-नहार कर के तिरी हक़ीक़त-पसंद दुनिया में आ बसे हैं हम अपने ख़्वाबों की सारी रौनक़ निसार कर के ये दिल तो सीने में किस क़रीने से गूँजता था अजीब हंगामा कर दिया बे-क़रार कर के हर एक मंज़र हर एक ख़ल्वत गँवा चुके हैं हम एक महफ़िल की याद पर इंहिसार कर के तमाम लम्हे वज़ाहतों में गुज़र गए हैं हमारी आँखों में इक सुख़न को ग़ुबार कर के ये अब खुला है कि उस में मोती भी ढूँडते थे कि हम तो बस आ गए हैं दरिया को पार कर के ब-क़द्र-ए-ख़्वाब-ए-तलब लहू है न ज़िंदगी है अदा करोगे कहाँ से इतना उधार कर के