कहाँ जाए तिरी यादों की बारिश की घड़ी है उदासी शाम बन कर दिल के आँगन में खड़ी है तअ'ज्जुब है अभी से कैसे हिम्मत हार बैठे अकेली शाम है और रात भी पूरी पड़ी है निकल जाऊँगा इक दिन तेरी यादों के सहर से अगरचे जानता हूँ आज़माइश ये कड़ी है बिछड़ जाने की इक बेगाना-ओ-बे-मेहर साअ'त किसी ख़ंजर की सूरत आज भी दिल में गड़ी है सुनी है दास्तान-ए-उम्मत-ए-मरहूम हम ने बिखरते मोतियों की आज इक टूटी लड़ी है अक़ीदत में हक़ीक़त का सुनहरी रंग भरने हर इक फ़िरक़े ने कोई दास्ताँ अपनी गढ़ी है भुला देना 'हिदायत' इस क़दर मुश्किल न होता किसी की याद लेकिन बात पर अपनी अड़ी है