कहाँ कहाँ पे लगे ज़ख़्म क्या दिखाऊँ उसे मैं किस ज़बाँ से कहूँ हाल-ए-दिल सुनाऊँ उसे वो मुझ को भूल के दुनिया बसा चुका है मगर मैं अब भी सोच रहा हूँ कि भूल जाऊँ उसे हर एक शब मैं यही सोचता हूँ बिस्तर पर जो अह्द ख़ुद से किया है कभी निभाऊँ उसे अना ने इश्क़ के पैरों में डाल दी ज़ंजीर मैं नाज़ कैसे करूँ रक़्स कर दिखाऊँ उसे मिरा ग़ुरूर मिरी राह की रुकावट है मैं सिर्फ़ सोच रहा हूँ कि अब हटाऊँ उसे कसे न ता'ना उसे तमकनत से तेज़ हुआ चराग़ बुझ गया जो ख़ून से जलाऊँ उसे गुलाब कैसे खिलाएँ अगर हो सख़्त ज़मीं हुनर ग़ज़ल का ये 'शादाब' मैं सिखाऊँ उसे