कहानियाँ भी गईं क़िस्सा-ख़्वानियाँ भी गईं वफ़ा के बाब की सब बे-ज़बानियाँ भी गईं वो बाज़याबी-ए-ग़म की सबील भी न रही लुटा यूँ दिल कि सभी बे-सबातियाँ भी गईं हवा चली तो हरे पत्ते सूख कर टूटे जो सुब्ह आई तो हीरा-नुमाइयाँ भी गईं वो मेरा चेहरा मुझे आइने में अपना लगे इसी तलब में बदन की निशानियाँ भी गईं पलट पलट के तुम्हें देखा पर मिले भी नहीं वो अहद-ए-ज़ब्त भी टूटा शिताबियाँ भी गईं मुझे तो आँख झपकना भी था गिराँ लेकिन दिल ओ नज़र की तसव्वुर-शिआरियाँ भी गईं