मिरे लोग ख़ेमा-ए-सब्र में मिरे शहर गर्द-ए-मलाल में अभी कितना वक़्त है ऐ ख़ुदा इन उदासियों के ज़वाल में कभी मौज-ए-ख़्वाब में खो गया कभी थक के रेत पे सो गया यूँही उम्र सारी गुज़ार दी फ़क़त आरज़ू-ए-विसाल में कहीं गर्दिशों के भँवर में हूँ किसी चाक पर मैं चढ़ा हुआ कहीं मेरी ख़ाक जमी हुई किसी दश्त-ए-बर्फ़-मिसाल में ये हवा-ए-ग़म ये फ़ज़ा-ए-नम मुझे ख़ौफ़ है कि न डाल दे कोई पर्दा मेरी निगाह पर कोई रख़्ना तेरे जमाल में