क़हत-साली सी क़हत-साली है दिल तिरी याद से भी ख़ाली है देख तू आसमाँ के बिस्तर पर चाँद मेरी तरह सवाली है ख़्वाब देखूँ तो किस तरह देखूँ नींद उस ने मिरी चुरा ली है हम ने बुझते हुए दिए की लौ तेज़ आँधी में फिर उछाली है सच तो ये है कि कार-ए-वहशत में हम ने ये उम्र ही गँवा ली है हिज्र की दोपहर में ऐ 'सय्यद' बज़्म यादों की फिर सजा ली है