कहीं भी जाओ मगर दिल के आस-पास रहो सुकून बन के रहो ज़िंदगी की आस रहो मिले जो वक़्त तो वा'दा कभी निभा देना ये कब कहा है हमेशा वफ़ा-शनास रहो मिटा दें फ़ासला जो कुछ भी हम में तुम में है मैं चाहती हूँ मिरी धड़कनों की साँस रहो उजड़ने दो न गुलिस्ताँ को ख़िज़ाँ में भी तुम सबा के साथ रहो गुल की बू-ओ-बास रहो ज़ियादा क़ुर्बतें बन जाएँ कहीं वजह-ए-फ़िराक़ न इतने दूर रहो और न इतने पास रहो वो रोज़-ओ-शब जो मुसीबत के थे हुए काफ़ूर कि मेरे होते हुए तुम न बद-हवास रहो किया है तुम ने 'मुनव्वर' किसी का ख़ाना-ए-दिल ये क्या सितम है कि तुम रू-ए-इल्तिमास रहो