कहीं धरा है पस-ए-तार-ए-अंकबूत सुकून कहीं पे कात रहा है मज़े से सूत सुकून सुकूत मौत है यारो सुकून ऐन-ए-हयात अगरचे यारो हम-आहंग हैं सुकूत सुकून दिलों से दूर ये वीरानियों में रहता है कि जिस तरह से कोई जिन है कोई भूत सुकून फ़रिश्तगी में ग़ुलामी में कुछ नहीं रक्खा तलाश कीजे बग़ावत में मिस्ल-ए-हूत सुकून हमारे गिर्द है बे-जा ग़ुरूर का ग़ौग़ा इसी लिए है हमारे यहाँ अछूत सुकून जो कम-सिनी में बढ़ाया करे थे बेचैनी दिया करे हैं बुढ़ापे में वो ख़ुतूत सुकून अमीर-ए-शहर के ख़ुत्बों से घर जो चलता है जनाब-ए-शैख़ को देती नहीं क़ुनूत सुकून न पल-दो-पल की ये राहत न पल-दो-पल का सुरूर मुझे तो चाहिए 'तस्लीम' ला-यमूत सुकून