कहीं दिन गुज़र गया है कहीं रात कट गई है ये न पूछ कैसे तुझ बिन ये हयात कट गई है ये उदास उदास मौसम ये ख़िज़ाँ ख़िज़ाँ फ़ज़ाएँ वही ज़िंदगी थी जितनी तिरे साथ कट गई है न तुझे ख़बर है मेरी न मुझे ख़बर है तेरी तिरी दास्ताँ से जैसे मिरी ज़ात कट गई है ये तिरा मिज़ाज तौबा ये तिरा ग़ुरूर तौबा तिरी बज़्म में हमेशा मिरी बात कट गई है तिरे इंतिज़ार में मैं जली ख़ुद चराग़ बन कर तिरी आरज़ू में अक्सर यूँही रात कट गई है न वो हम-ख़याल मेरा न वो हम-मिज़ाज मेरा फिर उसी के साथ कैसे ये हयात कट गई है ये किताब क़िस्मतों की लिखी किस क़लम ने 'निकहत' कहीं पर तो शह कटी है कहीं मात कट गई है