साक़ी मय-ए-गुल-रंग मिरे लब से मिला देख जिस वक़्त बहकने मैं लगूँ तब तू मज़ा देख गर देखना है बुलबुल-ए-नालाँ का तमाशा तो बाद-ए-सबा बाग़ में तू गुल को हँसा देख बिगड़ी है शब-ए-वस्ल तो वो मुझ से कहे है अब की तो बदन को तू मिरे हाथ लगा देख पीछा तिरा छोड़ें न कभी बोसा लिए बिन दो रोज़ हम ऐसों को ज़रा मुँह तो लगा देख क्या फ़ाएदा गर उस के दिल-ओ-जाँ का ज़रर हो 'मसरूर' को यूँ ख़ूँ न रुला रंग-ए-हिना देख