कहीं गिरफ़्त नहीं कोई इस्तिआरा नहीं नवाँ फ़लक हूँ कि जिस पर कोई सितारा नहीं रुके मुंडेर पे कब ताइरान-ए-रंग सदा सबात हो जिसे ऐसा कोई नज़ारा नहीं उलझ रहा है मिरा बख़्त फिर मिरे दिल से हमारा कैसे है वो शख़्स जो हमारा नहीं दरा-ए-सरहद-ए-अक़्ल-ओ-ख़िरद अगर है ख़ला तो ये न समझें कि इस बहर का किनारा नहीं हम अहल-ए-दिल थे सो ये हादिसा तो होना था कि अहद वो भी सहा है जिसे गुज़ारा नहीं