कहीं गुनाह कहीं पर सवाब लिखते हैं

कहीं गुनाह कहीं पर सवाब लिखते हैं
फ़रिश्ते रोज़ हमारा हिसाब लिखते हैं

वो लिख रहे हैं अगर अपनी बे-रुख़ी को बजा
तो हम नसीब को अपने ख़राब लिखते हैं

खुला यहीं से खुला शहर-ए-शादमाँ हम पर
तुम्हारे ग़म को मसर्रत का बाब लिखते हैं

हज़ारों आँख में चुभते हैं ख़ार की सूरत
तुम्हारे चेहरे को जब भी गुलाब लिखते हैं

यहाँ के लोग तो ता'बीर जानते ही नहीं
बस अपने नींद में रहने को ख़्वाब लिखते हैं

फ़रेब खाए हैं ख़ुश-मंज़री से इतने कि अब
चमकती रेत के ऊपर सराब लिखते हैं

हैं ऐसे लोग भी शहर-ए-अदब में जो 'काशिफ़'
किताब पढ़ते नहीं हैं किताब लिखते हैं


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