कलियों की परवरिश का सिला पा रहे हैं हम यारो भरी-बहार में मुरझा रहे हैं हम तेरे सिवा नहीं है कोई लम्स-आश्ना बाद-ए-सबा को छूने से घबरा रहे हैं हम जब रहनुमा-ए-शौक़ तू ही तू है चार-सू फिर कौन सोचता है किधर जा रहे हैं हम इक बार उस ने हम को पुकारा था नाम से मुद्दत हुई पर आज भी इतरा रहे हैं हम हर-दिल-अज़ीज़ यूँही अचानक नहीं हुए बरसों इसी दयार में रुस्वा रहे हैं हम जिस दिन से तेरे वादा-ए-फ़र्दा पे शक हुआ उस दिन से अपने आप को झुटला रहे हैं हम 'काशिफ़' ये बात कोई न जाने ख़ुदा करे क्यों इतने बे-क़रार नज़र आ रहे हैं हम