कहीं है दाग़-ए-नाकामी कहीं है ख़ून अरमाँ का हमारा दिल मुरक़्क़ा बन गया है यास-ओ-हिरमाँ का जहाँ वालों पे मैं एहसान करके भूल जाता हूँ मिरे अख़्लाक़ को चमका रहा है नक़्श निस्याँ का अलाएक में उलझ कर फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारा खो बैठा निहायत दीद के क़ाबिल था मंज़र बज़्म-ए-इम्काँ का बढ़ी है तिश्नगी सैराब कर दो पाँव के छालो ज़रा सा मुँह निकल आया है हर ख़ार-ए-बयाबाँ का नहीं हैं 'हाली'-ओ-'इक़बाल' से शाइ'र तो क्या ग़म है अभी इक दम ग़नीमत है तो 'जर्रार'-ए-सुख़न-दाँ का