कहीं ज़ाग़ की रसाई किसी गोशा-ए-चमन में कहीं ख़्वाब तो नहीं है मिरा ज़िक्र अंजुमन में मैं कभी हरीम-ए-गुल में कभी गोशा-ए-चमन में तुझे ढूँढता रहा हूँ मैं हर एक अंजुमन में वो लतीफ़ कैफ़ियत जो तिरी चश्म की अता है ये वदीअ'त-ए-इलाही कहाँ बादा-ए-कुहन में वो हसीं जवाँ थे कितने मिरी ज़िंदगी के हासिल जो मिले थे चंद लम्हे मुझे तेरी अंजुमन में नहीं अज़्म जिस का तन्हा मैं वो रहरव-ए-अदम हूँ मिरे दिल की हसरतें भी मिरे साथ हैं कफ़न में सर-ए-बज़्म उन की मुझ पर जो नवाज़िश-ए-करम है मिरे हासिदों के 'तालिब' लगी आग तन-बदन में