लतीफ़ बन के महक जो गुल-ओ-समन में रहे कहीं तुम्हीं तो नहीं पर्दा-ए-चमन में रहे ज़ुलेख़ा होती है रुस्वा भी पाक-दामानी उलझ के लाख जो यूसुफ़ के पैरहन में रहे बुझा हो दिल ही तो उस जुस्तुजू से क्या हासिल कोई हो फूल किसी गोशा-ए-चमन में रहे जुनूँ क़सम है तुझे बात होश की जब है कि एक तार भी बाक़ी न पैरहन में रहे ख़ुदा से कर के दुआ तुम को माँग ही लेंगे ज़बाँ हमारी सलामत अगर दहन में रहे सुख़न की बज़्म पे मौक़ूफ़ कुछ नहीं 'तालिब' रहे हैं रूह-ए-रवाँ हम जिस अंजुमन में रहे