कहीं ख़ला में कोई रूह चीख़ती होगी मिरा ख़याल है अब शाम ढल चुकी होगी पढ़ा तो था कहीं मैं ने किसी फ़क़ीर का क़ौल बग़ावतों की निगहबाँ सुपुर्दगी होगी मैं ख़ुद से महव-ए-तकल्लुम था बे-हिजाबाना मुझे ख़बर न थी दुनिया भी सुन रही होगी मिरे वजूद को आहंग भी उसी ने दिया मिरे अदम का सबब भी यही सदी होगी अभी अभी जो सर-ए-रहगुज़र मिली थी मुझे वो धूप छाँव की मूरत कहाँ गई होगी सफ़ीना-ए-वक़्त किसे अपने मुँह लगाता है हमीं ने फिर कोई बात ऐसी वैसी की होगी हयात में वो मक़ाम आ रहा है अब कि जहाँ न ए'तिक़ाद मुआविन न आगही होगी अजीब ख़ौफ़ मुसल्लत दिल-ओ-दिमाग़ पे है मिरे सफ़र की ये शब शायद आख़िरी होगी ये जनवरी का महीना भी कट गया 'हैरत' ख़ुदा के फ़ज़्ल से कल एक फ़रवरी होगी