अपने रंज-ओ-ग़म बाँटे हम से बा-ख़बर निकले साथ चलने वालों में कोई हम-सफ़र निकले बे-सआ'दती ठहरे ख़्वाह अब हुनर निकले सब ने जिस से रोका था हम वो काम कर निकले इक अजीब सन्नाटा महव-ए-शे'र-ख़्वानी था हम जहाँ-जहाँ पहोंचे हम जिधर जिधर निकले जाने किस के हाथ आएँ और क्या फ़ज़ा पाएँ फिर अलामतें बन कर मेरे बाल-ओ-पर निकले गहरे पानियों से क्या और दोस्तो मिलता मेरी ख़ाली आँखों में सैंकड़ों भँवर निकले मंज़िलों के पीछे भी और मंज़िलें होंगी रहगुज़र से आगे भी कोई रहगुज़र निकले काएनात की हस्ती इक फ़ज़ा-ए-सरमस्ती जैसे चाँदनी शब में ज़ेहन गश्त पर निकले हम ने उन को देखा है हम ने उन को परखा है जितने दीदा-वर निकले ख़ासे कम-नज़र निकले सिर्फ़ मैं न था तन्हा ज़द में धूप की ऐसा मेरी तरह के हर-सू अनगिनत शजर निकले क्या भरे ज़माने में बस यही नहीं मुमकिन मैं कहीं ठहर जाऊँ कोई मेरा घर निकले दूसरों ने क्या 'हैरत' ग़म को ग़म नहीं समझा हम मगर ग़लत निकले और किस क़दर निकले